रमज़ानुल मुबारक की फ़ज़ीलत व बरकत


कन्नौज। रमजान एक ऐसा महीना है जिसमें हर दिन और हर वक़्त इबादत होती है। रोजा इबादत,इफ्तार इबादत,इफ्तार के बाद तरावीह का इंतजार करना इबादत,तरावीह पढ़कर सहरी के इंतजार में सोना इबादत गर्ज कि हर पल खुदा की शान नजर आती है। कुरआन शरीफ में सिर्फ रमजान शरीफ ही का नाम लेकर इसकी फजीलत को बयान किया गया है रमज़ान के अलावा और किसी महीना को इतनी नेमत नहीं बख्सा गया है। इसमें एक रात शबे कद्र है जो हजार महीनों से बेहतर है। रमजान में इब्लीस और दूसरे शैतानों को जंजीरों में जकड़ दिया जाता है (जो लोग इसके बावजूद भी जो गुनाह करते हैं वह नफ्से अमारा की वजह से करते हैं) रमजान में नफिल का सवाब फर्ज के बराबर और फर्ज का सवाब 70 गुना मिलता है। रमजानुल मुबारक में सहरी और इफ्तार के समय दुआ कुबूल होती है। इसी तरह खालिके कायनात ने माहे रमजान में रोजा रखने का हुक्म दिया ताकि हर मोमिन को गरीबी और तंगदस्ती में मुब्तला और भूंख-प्यास से बिलकते इंसानों के दर्द व गम का एहसास हो जाए, दिल व दिमाग में जरूरतमंद मुसलामनों की किफालत का जज्बा-ए-सादिक पैदा हो जाए और खुसूसी तौर पर मुसलमान रमजान की इबादत की बदौलत अपने आप को पहले से ज्यादा अल्लाह तआला के करीब महसूस करता है। गरज कि महीने भर की इस मश्क का मकसदे खास भी यही है कि मुसलमान साल भर के बाकी ग्यारह महीने भी अल्लाह तआला से डरते हुए जिंदगी गुजारे, जिक्र व फिक्र, इबादत व रियाजत, कुरआन की तिलावत और यादे इलाही में खुद को लगा दे|

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